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जंगल जंगल लूट मची है

अमरेन्द्र किशोर

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2766
आईएसबीएन :81-8361-050-1

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इसमें उड़ीसा की चालीस हजार अविवाहित किशोरियों के मातृत्व का मुद्दा है...

Jangal Jangal Lut MachiHai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आदिवासी हमारे समाज के, हमारी जमीन के सबसे पुराने, सबसे दमदार और प्रकृति से सबसे अच्छा सम्बन्ध रखकर जीनेवाले लोग हैं। देश में कथित विकास का क्रम जब से शुरू हुआ है उसकी मार सबसे ज्यादा आदिवासियों ने उठाई है। सघन जंगल के सिमटने के बावजूद इन आदिवासियों ने हार नहीं मानी है। क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप के आदिवासी चिरंतन वागी लड़ाकू हैं। पहाड़ों और जंगलों में कुदरती संसाधनों की बदौलत वे ज्यादा अच्छा, समानता भरा और तनावमुक्त जीवन जीते हैं। चूँकि वे प्रकृति से ज्यादा करीब हैं, यही वजह है कि वे जल, जमीन, जंगल से अच्छा तालमेल बिठाकर रहते हैं। अमरेन्द्र किशोर की यह पुस्तक जंगल जंगल लूट मची है इन्हीं मुद्दों का विस्तृत लेखा-जोखा है।

लेखक का यह मानना है कि कथित विकास का खामियाजा सबसे ज्यादा इन्हीं आदिवासियों को भुगतना पड़ा है। इन बनवासियों की पुश्तैनी जमीन, टोला और वनदेवता लीलने के बाद विकास का तक्षक इनके अस्तित्व को भी डँस रहा है। तभी तो आजादी के बाद हमारे यहाँ के लगभग दो करोड़ आदिवासी विस्थापित होकर नारकीय जीवन जीने को मजबूर हुए हैं।

अमरेन्द्र किशोर लम्बे समय से आदिवासियों के प्रति गहरी हमदर्दी से और जुड़े मुद्दों पर लिखते-पढ़ते रहे हैं। अब अपनी संस्था इन्ट्वाट के माध्यम से काम भी कर रहे हैं। दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों में जाकर वहाँ अपनी सेवाएँ देते रहे हैं-चाहे इण्डोनेशिया के कभी मुंड आखेटक रहे डायक आदिवासी हों या बांग्लादेश के मुरू जनजाति के लोग। बचपन से ही वनवासियों के बीच रह चुके अमरेन्द्र बड़ी संजीदगी से आदिवासी समाज के बारे में सोचते हैं और वैसा ही करते हैं। तभी तो इस समुदाय का ज्यादा पीड़ित हिस्सा अर्थात औरतें, उनके प्रति लेखक की चिन्ता ज्यादा प्रबल ढंग से आती है।
अमरेन्द्र ने कई मुद्दों पर मुल्क के मीडिया को दिशा दी है। खासतौर से उड़ीसा की चालीस हजार अविवाहित किशोरियों के मातृत्व का मुद्दा ऐसा ही है। इस किताब में आए ज्यादातर निबन्ध गहरी भावुकता के साथ लिखे गए हैं। ये लेख आदिवासी जीवन के किसी न किसी नए और अचर्चित हिस्से पर रोशनी डालते हैं। इन्हें एक साथ देखना ज्ञान, समझ और संवेदना बढ़ानेवाला अनुभव है।

विस्थापन में नागदंश की छटपटाता वन्य समाज मौजूदा दौर में नेतृत्व के संकट से कराह रहा है। अन्यथा इस नागदंश से उबरने के उपाय संसद में निश्चित ही ढूँढ लिए जाते। आजादी मिलने के अर्द्धसदी बाद भी पुनर्वास नीति का राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बन पाना किसी की उदासीनता, किसी की मूर्खता और बहुतों के काइयाँपन का ही परिणाम है। संसद में बैठे सैकड़ों नुमाइंदे यह भली भाँति जानते हैं कि उपेक्षाओं भोलेपन और धूर्ताओं से दूर होकर समस्याओं के निदान के लिए किसी भी समाज में नेतृत्व का मुद्दा एक अलग किस्म की राजनीतिक पहल की माँग रखता है। यह माँग पुरानी व्यवस्था को नकार कर नए सिरे से अपनी पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था के दर्शन और एथिक्स को स्थापित करने का हिमायती होता है। तभी वन्य समाज की भेड़ हँकाई की जाती है। उन्हें ठगा जाता है और उन्हीं के संसाधनों के बलबूते पर सामंतवाद का अछोर विस्तार किया जाता है। यह बेहद आश्चर्य की बात है कि विकास के तरीके और गुलामी के एक फार्मूले लागू किये जाने के बावजूद वनवासियों का नौतिक बोध आज भी जस का का तस है। ब्रिटिशों के सम्राज्यवाद या आजादी के बाद उलझी परिस्थियों में भी नेतृत्व का यही देसी फार्मूला अपने नैतिक बोध के बूते ही वर्षों तक यह अहसास कराता है कि आदिवासी समाज टूटने में विश्वास नहीं रखता।

भूमिका


जनजातीय भारत की ज़िंदगी जितनी सरस-सहज और सरल है, वहाँ की समस्याएँ उतनी ही ज्वलंत और जटिल हैं। उन ज्वलंत मुद्दों पर लिखने की मेरी दुविधा यही होती है कि उनकी शुरुआत कहाँ से हो और अंत कैसे हो। क्योंकि भारत के सवा आठ करोड़ आदिवासियों की समस्याएँ अनंत हैं, जिनके प्रति शासन और प्रशासन द्वारा ओढ़ी गई चुप्पी अपने नीति नियंताओं की विवशता कम शरारत कहीं ज्यादा दिखती है। इस शरारत में निर्ममता के अलावा षड्यंत्र की कुटिलता भी नजर आती है।

पत्रकारिता और समाजसेवा से जुड़े रहकर बिहार, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के करीब नब्बे जिलों के आदिवासी बहुल साढ़े सात सौ गांवों में जाने और रहने का मौका मिला। यह मौका आज भी मिल रहा है। चारों ओर वही बेचारगी है, विवशता है, बेबसी है जिनसे छुटकारा दिलाने की मंशा देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू रखा करते थे। तब से नौकरशाहों से लेकर नेताओं और उनके दलालों की एक नहीं कई पीढ़ियाँ आईं, जीभें लपलपाकर, डंसती हुई गुजर गईं। शेष बचा नागदंश जो वनपुत्रों की ज़िंदगी में टीस चस्पाँ कर गई। अजीबों-गरीबों नियम-कानून सनसनी पैदा करनेवाले फरमान और ज़िंदगी-संस्कृति को लीलनेवाली वैसी परियोजनाएँ जो विकास के रामनामी चादर ओढ़े प्रकट हुईं; इन सबने जनजातीय भारत को लुटेरों-लोफरों, लालची तत्त्वों का उपनिवेश बना डाला। यही वजह है कि आजाद भारत की राज-व्यवस्था से आज हर आदिवासी आहत है। उदास है। उत्तेजित है।

सुदूरवर्ती इलाकों में लोगों से मिलना, उनसे उनके बारे में जानना और उन जानकारियों को इकट्ठा करना थोड़ा मुश्किल तब हो जाता है जब आपके बाहरी होने की सहज अविश्वसनीयता और उनकी अभिव्यक्ति को समझ पाने की भाषायी समस्या बार-बार पूरे मुहिम को निष्फल करने की कोशिश करती है। ये सारे निबन्ध इसी प्रक्रिया में लिखे गए हैं। एक अंतर्व्यथा यह भी है कि वन-प्रांतरों में लोगों से मिलने-जुलने का सिलसिला जैसे ही तेज होता है, स्थानीय लोग कुछ अपेक्षाएँ पाल लेते हैं। इस हाल में उन्हें यह कह पाना या समझाना मुश्किल हो जाता है कि लेखक-पत्रकार या समाजसेवी की अपनी सीमाएँ होती हैं। उसका कर्त्तव्यबोध उसे झूठे आश्वासन ओकने की छूट नहीं देता और न ही उसका ऐसा संस्कार होता है कि वह वादों की फसलें काटे। इसके बावजूद हमारा यह फर्ज बनता है कि देश के दूरदराज की समस्याओं और वहाँ सक्रिय शोषक तत्त्वों की कारगुजारियों का बेलाग विवेचन हो। इन निबंधों में मैंने विषय के साथ कितना न्याय किया, किसके बारे में कितना सच कहा और सनातन बन चुकी आदिवासियों की दुर्गतियों के निराकरण के उपाय सुझाने में कितना सफल रहा; यह सब मैंने अपने सुधी पाठकों के लिए छोड़ा है। हिंदी जगत के चितंनशील पत्रकारों-विद्वानों और सर्वसामान्य पाठक तटस्थ होकर उन सवालों के जवाब ढूँढ़ेंगे।

अततः हिंदुस्तान दैनिक की संपादिका मृणाल पांडे के अलावा नवभारत टाइम्स के श्री मधुसूदन, आनंद दैनिक भास्कर के श्री श्रणव गर्ग, नई दुनिया के श्री अभय छजलानी, कादम्बिनी के श्री राजेंद्र अवस्थी (अब अवकाश प्राप्त) और राष्ट्रीय सहारा के श्री संजय श्रीवास्तव के प्रति विशेष आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्हें आदिवासी समाज की चिंता है और इन सुधी संपादकों ने मुझे लिखने का अवसर दिया। श्री अरविंद मोहन (सह संपादक, हिन्दुस्तान) का विशेष सहयोग मेरे साथ रहा जिनकी प्रेरणा से विकास और पर्यावरण से जुड़े विचार और विश्लेषण करने की क्षमता विकसित हुई।
झारखंड और कैमूर के पहाड़ी इलाकों में आदिवासियों की सेवा में जुटे रहे मेरे प्रेरणास्रोत पिताश्री कृष्ण देव नारायण पांडेयजी का मार्गदर्शन बड़ा ही उपयोगी साबित हुआ। माँ (श्रीमती मंजू पांडेय) के व्यक्तिगत अनुभव का उपयोग न कर पाऊँ तो लेखन संभव नहीं।

निबंध संग्रह का प्रकाशन राधाकृष्ण प्रकाशन ने किया है, मैं श्री अशोक महेश्वरी के प्रति आभारी हूँ।
नई दिल्ली
6 अगस्त, 2005

-अमरेंद्र किशोर

मति काटु जंगल, मति काटु पाहर


दक्षिणी दिल्ली की किसी पॉश कॉलोनी में काम करनेवाला एक मतवाला छोरा गाता है-‘दही लेके चलऽली गुजरिया, दहिया छलऽकत जाए। बीचे रहिया मिलले कन्हइया...दहिया छलऽकत जाए।’ वह गाते-गाते दूसरी दुनिया में खो गया। अपनी दुनिया, सपनों की दुनिया, जहाँ सात रंगों के सपने हैं। परदेश में अपने गाँव के गीत गाने में भाव-विमुग्ध वह किशोर बड़ी विह्वलता से गुजरिया और कन्हइया के आमने-सामने होने के प्रसंग गीतों के जरिए प्रकट करता है। कहाँ दिल्ली शहर और कहाँ गाँव की बातें ! गाँव में प्रचलित गीत-मतलब पूरी संस्कृति बहुफलकीय होने के बावजूद एकाकार होकर प्रकट हो गई। वहाँ की स्थानीय संस्कृति जहाँ का वह रहनेवाला है, उसे अपने पास बुला रही है।

वह अपने गाँव से सैकड़ों मील दूर है। खबर आई है कि गाँव में अकाल पड़ गया। पूरी आबादी भूख से बिलबिला रही है। पानी के लिए छछन रही है। अनाथ के लिए अकाल महाकाल से भी भयावह लगने लगा। अपने मित्रों के संग परदेश चला गया; पर उस छोरे का मन वहाँ नहीं रमा। कहाँ तो भरी दुपहरिया में आम्र-मंजरियों में ढेलेबाजी करके टिकोरों की कच्ची गंध से कच्ची उम्र की लड़कियों को लुभाते थे, बासमती के खेतों में मेंड़ों पर दौड़ते थे, वैशाख में खेत डाहने के समय गाँव के शहदली मियाँ को ‘का हो मौसा’ कहकर चिढ़ाते थे और कहाँ बसों-कारों के धुएँ की चीकट गंध और असह्य तपिश में हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़े। तभी तो घर की याद सताने लगी। यह बात दूसरी है कि वह घर जा नहीं सकता। क्योंकि अकाल के दानव ने न जाने कितनों को लील लिया हो, खेतों में जानवरों के अस्थि-पंजर हों और शहदली मियाँ ? अज्ञात आशंका से वह कांप उठता है। पर उसकी मधुर तान फागुन में फाग गाने की हुलास, रिश्ते की भौजाइयों को छेड़ने की मुखर आकांक्षा और अपने शहदली ‘मौसाजी’ से अनायास बिछुड़ने का दर्द-उन सबसे वह जुदा नहीं है। इसलिए गाँव की याद सताती है। न जाने उस छोकरे ने अपने गाँव में कितनों के लात-बात सहे होंगे, कितनी रातें ठिठुरकर बिताई होंगी, कितने जून भूख से आँतें कुलबुलाई होंगी। फिर भी अपने गाँव वह मनमौजी जाएगा ही। अभी परदेश में है तो स्वर-संसार में डूबकर मन हलका कर लेता है।

प्रकृति के साथ इस सनातन रिश्ते से जो परितृप्ति गाँववाले पाते हैं वह भला शहरों में कहाँ, महानगरों में कहाँ ! सम्बन्धों की ऊष्मा अब नगरीय ज़िंदगी में बिलकुल नहीं रही। हमारी ज़िंदगी से ताप का निरंतर लोप हो रहा है। इसीलिए तो आचार्य विद्यानिवास मिश्रजी कहते हैं-‘हमारे जीवन में ताप है ही कहाँ ? जो है वह नियंत्रित है। किसी भी रिश्ते में कोई गरमी नहीं है, यहाँ तक कि वे निकटतम और उष्णतम कहे जानेवाले सेक्स के रिश्ते में भी नहीं।’

इंसान के अंतर्मन में आध्यात्मिक आकुलता है। यदि ऐसी आकुलता से दूर हटकर भी हम केवल लौकिक प्रीति के ताने-बाने में बुनी आकुलता की बातें करें तो भी उसका चित्रण बड़ी गहराई से देखने को मिलता है-प्रवास के लिए तैयारी करनेवाले पति से पत्नी पूछती है कि तुम तो परदेश जा रहे हो, उपाय बताओ कि विरह कैसे कटेगा ? पति उससे कहता है कि हम परदेश से तुम्हें पाती भेजेंगे। इस जवाब से वह तुनककर कहती है-

‘आगे लगे तोरे आती और पाती,
दीया के टेम जरै छतिया।

(तुम्हारी आती-पाती को आग लगे, मेरी छाती दीए की बाती की तरह जल रही है।) पति परदेश जा चुका है। साँसें छूट रही हैं। अब उम्मीद नहीं रही कि बालम से भेंट होगी या नहीं। क्योंकि शहरी जीवन में पूँजी है, पूँजी की मादक माया है, माया का जन-जन विस्तार है, गुंफन है तो परदेश जाना हर किसी की मजबूरी हो गई है। वहाँ जीने के तमाम विकल्पों का आकर्षण है, अपना आकर्षण; जैसे यह विकल्प स्वर्ण-मंजूषा हो। पर उस पर मंजूषा पर हैवानियत का नाग कुंडली मारकर बैठा है। वहाँ अपना कुछ भी नहीं है। अपने को होम करते जाना उस जीवन की पहली शर्त है। क्योंकि नगरीय संस्कृति ‘परजीवी संस्कृति’ है; जितनी क्रूर उतनी ही लालची भी। गाँव-पहाड़ का समाज अपना सब कुछ उसके नाम उलीचता रहे; खुद खाली हो जाए, सीठ हो जाए, रेत बन जाए-यह सब उसे मंजूर है, दिखाने की बेसुरी उदासी है, महँगे कार्डों और उपहारों में प्रेमाभिव्यक्ति कैद है। सचमुच शहरी रिश्ते ठंडी ज़िंदगी में खोए होते हैं। इस जीवन में विकल्प है तो प्रेम भी किसी ‘खास’ का मोहताज नहीं रहा। विरह की आग में जलना बेमानी हो गया। शहरों में विरह नहीं है। सेक्स शब्द से समूह जैसा विशेषण जुड़ चुका है। किंतु सुदूर अंचल में बैठी कोई विरहिणी गाती है-‘‘का जानि बालम ल भेंटबे कि नाहीं। कोरे माथे माँह सँवारें दरपन में छैंया देखे; का जानि बालम के भेंटबो कि नाहीं।’ (कौन जाने प्रियतम से मेरी भेंट होती है या नहीं। माँग निकाल, केश-श्रृंगार कर दर्पण में अपना रूप तो देख रही हूँ; कौन जाने, प्रियतम से भेंट होगी या नहीं)।

लोकगीत लोक-जीवन की कविता हैं। इसी वजह से वे अपने सहज एवं सरल भाव सौंदर्य के कारण काव्य के रूप में महत्त्वपूर्ण हैं। सवाल है, इन्हें रचनेवाला कौन था ! इन्हें गढ़नेवाला मानव कितने बसंतों की मदमदाई वादियों, कितनी ग्रीष्म ऋतुओं के ताप और कितनी बरसातों के अंधड़-बवंडर उसने देखे होंगे। चूँकि काव्य की धारा स्वतः फूटती है। क्योंकि कविताओं में, गीतों में ज्यादा से ज्यादा मिठास दिल को चीरनेवाली अंतर्दाह की तीखी लकीरें-और हास परिहास के रुपहली भाव-व्यंजना के साथ ध्वनि-सौंदर्य तभी प्रकट होते हैं जब इंसान परिस्थितियों का दास बनता है। जीवन के सुख-दुःख, माधुर्य, करुणा, अश्रु और हास के भावपूर्ण चित्र वैयक्तिक अनुभवों के कारण संभव होते हैं। जिस समाज का सरोकार हवा से, पानी से, रोशनी से, चाँदनी से, पत्तियों के रंग से, फूलों की गंध से, परिमल प्रवाह से, झरने के निनाद से, गौरेया की चहचहाहट से सही रूपों में न हो पाया हो, उनके खालिस रूपाकारों से न हो पाया हो वह समाज आधुनिक होने या सभ्य होने की बरजोरी तो कर सकता है, पर जीवन के रंग, गंध स्वाद का पता उसे नहीं हो सकता।

पश्चिमी देशों में लोक को ‘फोक’ कहा जाता है। अपने देश में लोक ‘फोक’ नहीं है। वहाँ इस ‘फोक’ को लेकर जो अवधारणाएँ स्थापित की गई हैं, वे अंतर्मन को ठेस पहुँचाती हैं। ‘जो गँवारू हो, जो पीछे छूट गया हो, जो अनपढ़ लोगों की वाचिक परंपरा के रूप में भी स्वीकृत है-वह ‘फोक’ है। अपने देश में इस फोक के हाथ-पाँव में इतनी सारी बेड़ियाँ डालने के बजाय हमारे विद्वान पूर्वजों ने ‘फोक’ को बेहद विस्तार दिया है। सबसे खास बात तो यह है कि लोक भला मनुष्य समुदाय तक सीमीति कैसे रह सकता है। इसे प्रतिक्षण उपस्थित माना जाता है। मतलब जो संचरणशील है या स्थावर है, जो दूसरे लोक-व्यतीत नहीं है, उन्हें लोक कहा गया है। पश्चिमी देशों का फोक प्रमाण के रूप में स्वीकृति नहीं होता। अपने-देश में, अपने समाज की बात किजिए। लोक की बात जब भी होगी, लोक-दृष्टि की चर्चा जब भी होगी तो सतत मंगल-विधायिनी उद्देश्यों की प्राप्ति के साथ हमारा यह उद्देश्य होगा कि हम ऐसे उद्देश्यों की प्राप्ति में निरंतर सजग रहें, सचेष्ट रहें। आचार्य विद्यानिवास मिश्रजी कहते हैं-‘भारतीय जनमानस में लोक-दृष्टि में जीवन की पूर्णता के मंसूबे होते हैं।’ जीवन की पूर्णता केवल प्रेम और विरह में नहीं बल्कि जीवन के अन्य पक्षों की भी मार्मिक अभिव्यक्ति से होती है। अपनी लोक-दृष्टि तो बंधनहीन है, उत्सुकता और कौतुकी का मिश्रण है, किंतु जीवन जीने के तमाम विकल्प उनमें हैं। हँसने-हँसाने के निमंत्रण हैं, राम-रंग के आमंत्रण हैं, एकाकार होने के संकल्प हैं। बावजूद इसके कि इस ज़िंदगी का कोई ठाँव नहीं, कोई भरोसा नहीं-‘जीयत जनम लेबो। हँसि लेबो। मरे ले दूलभ संसार। जिनगी के नई है भरोसे।’

वर्तमान को सब कुछ मानना, इनके यथार्थ को स्वीकारना और भविष्य की दुरुहताओं से चिंतित न होकर प्रकृति के बीच हँसना-खेलना-इस बात पर वह युवती जोर देती है। उसका दृष्टिकोण निराशाजनक नहीं है, न ही वह दूराशा की ओर फिसलती है। उसका तो बस यही कहना है कि जन्म लिया है तो जी लें, हँस लें और खेल लें। यह संसार अनमोल है। मरने के बाद तो संसार दुर्लभ हो ही जाएगा। बेशक, वह हमें निराशाओं से, कुंठाओं से और घुटन से बचने-बचाने की प्रेरणा देती हैं।
आदिवासी समाज ज़िंदगी को बेहद सहजता से लेता है। उसके जीने का नजरिया पेचीदा नहीं होता, भले ही संघर्षों की श्रृंखला कितनी भी लंबी क्यों न हो, उसमें उतार-चढ़ाव क्यों हो-वह समाज चुनौतियों के बीच मजे से रहना जानता है। उस समाज में सहजता है, विश्वास है, सामंजस्य है, श्रद्धा है, आशा है-

‘हाय रे गुचाए पेलो कालोत रे
नीन एन कोड़ा राजी कालोत हो
नीन एन कोड़ा राजी कालोत

(हाय रे, आओ युवती, चलो-हम और तुम परदेश चलें। हाय, तू पकड़ेगी टोकरी। मैं पकड़ूँगा कुदाल। कैसे नहीं कटेगा समय ? कैसे नहीं कटेगा समय ?) अपने जीवनसाथी को विश्वास दिलानेवाला वह युवक कई रंगों के सपने देख रहा है। उसके मन में उल्लास है, उमंग है। जीवन जीने का सीधा और सधा नजरिया है। उसके दृढ़ विश्वास हमें प्रेरणा देते हैं। अपनी ज़िंदगी में रुकावटों के हिमालय, सतपुड़ा और विंध्याचल हैं। एक आदिवासी छैला के पास जोश है, प्रतिज्ञा है। उसके सामने पर्वत क्या, पहाड़ क्या और सागर की लहरों की औकात क्या, जो उसे हिला सकें, डिगा सकें। वह तो मचल रहा है। अपनी प्रियतमा के संग मिलजुलकर वह पहाड़ तोड़ेगा, जमीन खोदेगा, तभी तो रास्ते आसान होंगे। इन गीतों में तत्व ज्ञान की गंभीरता से जीवन पर दृष्टिक्षेप के प्रयत्न भी मिलते हैं। वे आत्ममुदित होते हैं कि उनकी वीरता स्वयंसिद्ध है। तभी तो एक सुहागिन इतराती है-





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